एकाग्रता और प्राथमिकता पर एक प्रेरणादायक सच्ची कहानी

Arjuna Focus story

भारतवर्ष के महान ऐतिहासिक महाकाव्य महाभारत से एक रोचक घटना प्रस्तुत है। यह सच्ची घटना हमें बताती है कि हम अपने जीवन में जो भी लक्ष्य निर्धारित करते हैं, उसे प्राप्त करने के लिए हमें किस तरह अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस ब्लॉग के अंत में आपको कुछ अंतर्दृष्टि/शिक्षा मिलेंगे। चलिए, आरम्भ करते हैं…

जब सभी पाण्डव एवं धृतराष्ट्र कुमार धनुर्विद्या तथा अस्त्र-संचालन की कला में सुशिक्षित हो गए तब आचार्य द्रोण ने उन सबके अस्त्रज्ञान की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होंने कारीगरों से एक नकली गीध बनवाकर वृक्ष के अग्रभाग पर रखवा दिया। राजकुमारों को इसका पता नहीं था। आचार्य ने उसी गीध को बींधने योग्य लक्ष्य बताया। द्रोण बोले – तुम लोग इस गीध को बींधने के लिए शीघ्र ही धनुष लेकर उस पर बाण चढ़ाकर खड़े हो जाओ। फिर मेरी आज्ञा मिलने के साथ ही इसका सिर काट गिराओ। पुत्रों! मैं एक-एक को बारी-बारी से इस कार्य में नियुक्त करूँगा; तुमलोग मेरे बताये अनुसार कार्य करो।

फिर आचार्य द्रोण ने सबसे पहले युधिष्ठिर से कहा – हे वीर! तुम धनुष पर बाण चढ़ाओ और मेरी आज्ञा मिलते ही उसे छोड़ दो। तब युधिष्ठिर धनुष लेकर गीध को बींधने के लिए लक्ष्य बनाकर खड़े हो गए। तब दो घड़ी बाद युधिष्ठिर से आचार्य द्रोण ने इस प्रकार कहा – ‘राजकुमार! वृक्ष की शिखा पर बैठे हुए इस गीध को देखो।’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – ‘भगवन! मैं देख रहा हूँ।’ दो घड़ी और बिताकर द्रोणाचार्य फिर उनसे बोले – क्या तुम इस वृक्ष को, मुझको अथवा अपने भाईयों को भी देखते हो? यह सुनकर युधिष्ठिर उनसे इस प्रकार बोले – ‘हाँ, मैं इस वृक्ष को, आपको, अपने भाईयों को तथा गीध को भी बारम्बार देख रहा हूँ’। उनका उत्तर सुनकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अप्रसन्न-से हो गए और उन्हें झिड़कते हुए बोले, ‘हट जाओ यहाँ से, तुम इस लक्ष्य को नहीं बींध सकते’।

तदनन्तर आचार्य ने उसी क्रम से दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र पुत्रों को एवं शेष पाण्डवों और अन्य शिष्यों को भी उनकी परीक्षा लेने के लिए बुलाया और वैसा ही प्रश्न किया। प्रश्न के उत्तर में सभी ने (युधिष्ठिर की भाँति ही) कहा – ‘हम सब कुछ देख रहे हैं।’ यह सुनकर आचार्य ने उन सबको झिड़ककर हटा दिया।

फिर द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा – ‘अब तुम्हें इस लक्ष्य का वेध करना है। इसे अच्छी तरह देख लो’। ‘मेरी आज्ञा मिलने के साथ ही तुम्हें इस पर बाण छोड़ना होगा। पुत्र! धनुष तान कर खड़े हो जाओ और दो घड़ी मेरे आदेश की प्रतीक्षा करो’। उनके ऐसा कहने पर अर्जुन ने धनुष को खींचा और फिर वे गुरु की आज्ञा से प्रेरित हो गीध की ओर लक्ष्य करके खड़े हो गए। दो घड़ी बाद द्रोणाचार्य ने उनसे भी उसी प्रकार प्रश्न किया – ‘अर्जुन! क्या तुम उस वृक्ष पर बैठे हुए गीध को, वृक्ष को और मुझे भी देखते हो?’ यह प्रश्न सुनकर अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा – ‘मैं केवल गीध को देखता हूँ। वृक्ष को अथवा आपको नहीं देखता। इस उत्तर से द्रोण का मन प्रसन्न हो गया। दो घड़ी बाद द्रोणाचार्य ने अर्जुन से फिर पूछा – ‘वत्स! यदि तुम इस गीध को देखते हो तो फिर बताओ, उसके अंग कैसे हैं?’ अर्जुन बोले – ‘मैं गीध का मस्तक भर देख रहा हूँ, उसके सम्पूर्ण शरीर को नहीं’।

अर्जुन के यों कहने पर द्रोणाचार्य के शरीर में हर्ष से रोमांच हो आया और वे अर्जुन से बोले, ‘चलाओ बाण!’ अर्जुन ने बिना सोचे-विचारे बाण छोड़ दिया। फिर तो अर्जुन ने अपने चलाये हुए तीखे बाण से वृक्ष पर बैठे हुए उस गीध का मस्तक वेगपूर्वक काट गिराया। कार्य में सफलता प्राप्त होने पर आचार्य ने अर्जुन को ह्रदय से लगा लिया। 

भारतीय इतिहास की इस सच्ची घटना से हम क्या प्रेरणा/शिक्षा ले सकते हैं?

  • एकाग्रता और तन्मयता – किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह अनिवार्य है कि हमारा सम्पूर्ण ध्यान उसी की ओर लगा हुआ हो। यदि हमारा ध्यान केंद्रित न होकर बिखरा हुआ हो, अनेक बातों में बंटा हुआ हो तो हम अपने लक्ष्य को भेद नहीं सकेंगे। हमने उपर्युक्त प्रसंग में देखा कि जिन शिष्यों का ध्यान पक्षी के मस्तक के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं पर भी था, गुरु द्रोण ने उनको बाण छोड़ने की आज्ञा ही नहीं दी । इसलिए लक्ष्य प्राप्त करना है तो वीर अर्जुन समान बनिए।
  • सही प्राथमिकता देना – यदि एक साथ अनेक काम पर ध्यान दिया जाये तो लक्ष्य-प्राप्ति में बाधा हो सकती है। हमें अच्छी तरह सोच-विचार कर यह निर्णय कर लेना चाहिए कि मुझे किस बात को अपने जीवन में सर्वाधिक प्राथमिकता देनी है। उदाहरण के लिए, यदि मुझे 3 लक्ष्य प्राप्त करने हैं तो मुझे उनकी प्राथमिकता निश्चित कर लेनी चाहिए – प्रथम, द्वितीय, तृतीय। इससे हमारा समय और हमारी ऊर्जा केंद्रित रूप से कार्य में लगेगी। उपर्युक्त प्रसंग में हमने देखा कि अर्जुन को अच्छे से स्पष्ट था कि उन्हें अपना ध्यान बाज के मस्तक पर ही रखना था, उनके लिए आसपास की चीजों की प्राथमिकता शून्य थी (उनका कोई महत्त्व नहीं था)।
  • आत्म-विश्वास – औरों के कर्म, बोल या विचार से व्यक्ति को प्रभावित नहीं होना चाहिए। आपने देखा, अर्जुन ने किस प्रकार गुरु द्रोण के प्रश्नों का उत्तर अन्य सभी शिष्यों से भिन्न दिया। औरों से भिन्न निर्णय लेने के लिए व्यक्ति के पास आत्म-विश्वास का होना अनिवार्य है। यह आवश्यक नहीं कि अधिकांश लोग जो कर रहे हों, वही सही हो। हमें अपने विवेक और अंतर्प्रज्ञा के अनुसार जो सही लगे, वही करना चाहिए।
  • लोगों को खुश करने से बचना – व्यक्ति को सत्यता के साथ हर कार्य करना चाहिए। ऐसा न हो कि हमसे जब कोई प्रश्न किया जाये तो प्रश्नकर्ता को क्या सुनना अच्छा लगेगा, उसके अनुसार हम उत्तर दें। नहीं, सच्चे रहकर ही हम स्वयं को और अपनी स्थिति को शक्तिशाली बना सकते हैं। जब द्रोणाचार्य ने अर्जुन से पूछा कि वे पक्षी के अतिरिक्त वृक्ष को, स्वयं उन्हें और अपने भाईयों को देख पा रहे थे या नहीं, और फिर जब पक्षी के अंग के बारे में पूछा तो अर्जुन ने यह नहीं सोचा कि गुरु को क्या सुनना प्रिय लगेगा। उन्होंने वही बताया जो वस्तुस्थिति थी। इसी प्रकार हमें भी स्वयं तथा सभी के साथ सत्यता के साथ व्यवहार करना चाहिए। हमारे विचार, बोल और कर्म में भिन्नता न हो।

कृपया हमारी महान भूमि भारतवर्ष की इस प्रेरक ऐतिहासिक घटना के बारे में अपने विचार साझा करें। साथ ही, यदि आपके पास इससे संबंधित कोई अन्य जानकारी या सीख हो तो उसे भी साझा करें।

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