मन एवं इन्द्रियों का संयम

प्रायः सभी धर्मों का आधार है – मन और इन्द्रियों का संयम। इन पर संयम होने से जीवन के सभी क्षेत्रों में संयम स्वाभाविक ही हो जाता है। किन्तु मन तो बड़ा चंचल है। हरदम भटकता फ़िरता है। रोकने पर इसकी जिद्द और बढ़ जाती है। फ़िर भी बार-बार इसे किसी एक ही ध्येय की ओर बलपूर्वक लगाने के अभ्यास से इसकी चंचलता नष्ट हो जाती है। निरंतर अभ्यास से कहीं जाकर मन वशीभूत होता है। मन जब वशीभूत हो जाता है तब लक्ष्य की ओर बड़ी तेजी से बढ़ता है। मन की एकाग्रता ही किसी कार्य की सफलता का मूल मंत्र है।

इन्द्रियाँ भी काफी चंचल होती हैं और अपने विषयों की ओर उनमें अत्यधिक आसक्ति होती है। वे बार-बार अपने विषय में डूबकर सुख लेना चाहती हैं। विषयासक्ति इन्द्रियों और मन दोनों में होती है। अतः संयम दोनों का आवश्यक होता है। मन संयमित हो जाय तो उसके अनुसार इन्द्रियाँ भी स्वतः संयमित हो जाती हैं।

जब सारथी ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो, लगाम बेकाबू हो और घोड़े अड़ियल हों तथा उनके आसपास भोग-विलास रुपी हरी घास के अनेक ढेर लगे हों तो क्या रथ लक्ष्य की ओर बढ़ सकेगा?

उपनिषद में वर्णित है:

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।। (कठोपनिषद 1/3/3)

अर्थात् जीवात्मा को तो रथ का स्वामी समझो और शरीर को ही रथ समझो तथा बुद्धि को सारथी समझो और मन को ही लगाम समझो।

प्रश्न उठता है कि बुद्धि रुपी सारथी मन रुपी लगाम के द्वारा इन्द्रियों पर किस प्रकार शासन करे, जिससे वे विषयासक्ति में न भटक कर परम लक्ष्य (सत्य/भगवान) की ओर उन्मुख हों। इसका उत्तर भी उपनिषद में ही आगे उल्लेख किया गया है:

वस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा ।
तस्येंद्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ।। (कठ: 1/3/6)

अर्थात् जिस मनुष्य की बुद्धि अपने लक्ष्य की ओर ध्यान रखती हुई अपने नियंत्रण में रखी हुई मन रुपी लगाम से इन्द्रियों को सन्मार्ग पर चलाने में सदा तत्पर रहती है, उसकी इन्द्रियाँ निश्चयात्मिका बुद्धि के अधीन होकर वैसी ही चलती हैं, जैसे सावधान सारथी के घोड़े उसके वश में रहकर उसके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलते हैं।

इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रियों का सीधा संबंध हमारे मन से है। मन यदि इन्द्रियों पर पूर्णतः शासन रखे और इधर-उधर भटकने नहीं दे तो हम इस शरीर से बड़े से बड़ा काम कर सकते हैं। भाव यह है कि अपनी इन्द्रियों द्वारा जो काम हमें करने हैं, उनको तो हम अवश्य करें; किन्तु उन सारे कर्मों को मन द्वारा नियंत्रित रखें।

किन्तु यह मन भी तो बड़ा चंचल है और इसकी चंचलता के कारण इन्द्रियाँ इधर-उधर चलायमान होती रहती हैं। इस संबंध में जो थोड़ी सी बातें अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण के बीच हुई हैं, वे मनन करने योग्य हैं।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि विषयों में आसक्त न होने वाले मन से आत्मा का उद्धार करना चाहिये। इसके विपरीत विषयासक्त मन से आत्मा को नीचे नहीं गिराना चाहिये। क्योंकि मन ही तो अपना बंधु है और यह मन ही अपना शत्रु है। (गीता 6/5)

शब्द, रस, रूप, स्पर्श और गंध – ये पाँच, कान, जिह्वा, आँखें, त्वचा एवं नासिका (ज्ञानेन्द्रियों) के विषय कहे जाते हैं। इन विषयों में आसक्त हुआ मन हमारे दुःख-अशांति का कारण बनता है और इनसे अनासक्त मन दुःख-अशांति से मुक्ति का कारण बनता है।

जिसने अपने मन को विषयों की ओर से हटाकर जीत लिया है, वह मन तो उसका बन्धु है। जिसने मन को संयमित नहीं किया है उसका वह अपना मन ही शत्रुता का बर्ताव करता है; अर्थात् अपने कल्याण के प्रतिकूल बरतता है।  (गीता 6/6)

आगे भगवान यह बताते हैं कि यदि अपने दुखों का नाश करना चाहते हो तो नियमित आहार-विहार हो, कर्मों में नियमित चेष्टा हो तथा नियमित सोना-जागना हो। अर्थात् इन सब बातों में संयम रखा जाए तभी दुखों से छूटा जा सकता है। (गीता 6/16-17)

दुखों से मुक्ति का उपाय बता कर भगवान आत्मानुभव रूप उत्तम सुख पाने की युक्ति बताते हैं। समस्त विषयों से सम्पूर्ण इन्द्रिय समूह को रोककर, धैर्य-युक्त (विवेकपूर्ण) बुद्धि से धीरे-धीरे उपरत होकर, मन को आत्मा में स्थित करके अन्य कुछ भी चिंतन न करे। यह चंचल और अस्थिर मन जिस-जिस कारण से बाहर विषयों की ओर जाए, उस-उससे हटाकर अतिशय सुख की भावना से आत्मा में ही वश करे।

जिसका मन प्रशान्त है अर्थात् आत्मा में ही लीन हो गया है, इसी से जिसके समस्त पाप भस्म हो चुके हैं, और इससे जो अपने स्वरुप में स्थित हो चुका है, उस योगी को आत्मानुभव रूप उत्तम सुख मिलता है। (गीता 6/24-28)

भगवान की ये बातें सुनकर अर्जुन बोले – अपने अभ्यस्त विषयों में भी सदा चंचल स्वभाव (स्थिर न रहने वाले) मन को उसके विपरीताकार आत्मा में स्थापित करने के लिये रोकना तो मैं वैसा ही अति कठिन मानता हूँ, जैसा प्रतिकूल गति वाले महान वायु को रोकना। (गीता 6/34)

इस पर श्रीभगवान बोले – इसमें कोई संदेह नहीं कि चंचल स्वभाव होने के कारण मन को वशमें करना बहुत ही कठिन है, तथापि ‘अभ्यास’ और ‘वैराग्य’ से इसे वशमें किया जा सकता है। आत्मा गुणों का भंडार है, इस अभ्यास से आत्मा की ओर अपना ध्यान ले जाना है। आत्मा से अतिरिक्त सांसारिक विषय दोषों की खानें हैं, ऐसी अनुभूति से उन विषयों के प्रति वैराग्य धारण करना है।

मन को किसी लक्ष्य में स्थिर करने के लिये उसे अन्य विषयों से बार-बार खींच कर लक्ष्य में लगाने के लिये किये जाने वाले सारे प्रयत्नों को ‘अभ्यास’ कहते हैं। भगवान के नाम और गुणों का श्रवण-मनन-कीर्तन-जप-ध्यान तथा भगवद् विषयक पुस्तकों का अध्ययन बार-बार करने का नाम ही ‘अभ्यास’ है। इस प्रकार का अभ्यास करने से और विषयों के प्रति अनासक्ति एवं वैराग्य से धीरे-धीरे मन और इन्द्रियाँ शुभ में प्रवृत्त हो जायेंगे – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

मन से हम चाहे सांसारिक विषयों में फँसे रहें या मोक्ष प्राप्त कर लें, इसमें हमारी पूर्ण स्वतन्त्रता है। हमें संसार में रहना है और सांसारिक कार्यों को भी करना है, अतः जहाँ तक संभव हो संसार के कार्य करते हुए ही मन को भगवान में लीन कर देने का प्रयत्न निरंतर करना चाहिये। ऐसा अभ्यास बराबर करने से ही मन के संकल्प शुभ और वासनारहित होंगे तथा संसार में रहते हुए भी हम जीवन्मुक्त माने जायेंगे। इसलिये, संसार में रहें, किन्तु संसार को अपने भीतर न बसायें। नाव पानी में रहे, पानी को नाव में मत आने दें।

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